Muslim Law
Muslim Law
Muslim Law in India, also known as Islamic law or Sharia law, governs the personal matters of Muslims, including marriage, divorce, inheritance, and family relations. This body of law is derived from several key sources such as the Quran, the holy book of Islam, considered the ultimate authority in Islamic law, Sunnah, the practices, sayings, and approvals of the Prophet Muhammad, Ijma, consensus among Muslim jurists on legal issues when the Quran and Sunnah do not provide clear guidance and Qiyas, analogical reasoning based on the Quran and Sunnah. The secondary sources are judiciary decisions, customs and legislation.
Muslim personal law has been in practice since Islam’s arrival in the Indian subcontinent. It was officially administered during the rule of Muhammad bin Qasim in the 7th century and continued under the Delhi Sultanate and Mughal Empire, where the Qadis (judges) played a significant role in the judicial system. The British colonial administration later codified aspects of Muslim law into what is known as Anglo-Muhammadan Law. Muslim Personal Law (Shariat) is the cornerstone of modern Muslim personal law in India. It brought various customs in line with Islamic law and provided for the application of Sharia in personal matters. Dissolution of Muslim Act, 1939 act allows Muslim women to seek divorce under specific conditions. Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act was enacted in response to the Shah Bano case, which addressed the maintenance rights of divorced Muslim women.
Muslim personal law in India continues to evolve, with ongoing debates about its reform. Issues like the ban on triple talaq, women’s rights, and the uniform civil code frequently emerge in public and legal discourse. In summary, Muslim personal law in India is a complex interplay of religious doctrines, customary practices, and statutory laws, which collectively aim to govern the personal matters of the Muslim community within the framework of Islamic principles and the Indian legal system.
मुस्लिम लॉ
भारत में मुस्लिम कानून, जिसे इस्लामी कानून या शरिया कानून भी कहा जाता है, मुसलमानों के व्यक्तिगत मामलों जैसे विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, और पारिवारिक संबंधों को नियंत्रित करता है। इस कानून का आधार कई प्रमुख स्रोतों पर निर्भर है जैसे कुरान, सुन्नत, इज्ज्मा, कियास, आदि। इसके अतिरिक्त न्यायिक निर्णय, रीति-रिवाज, विधाई कानून भी प्रमुख हैं। भारत में मुस्लिम व्यक्तिगत कानून का अभ्यास इस्लाम के आगमन के साथ ही शुरू हो गया था। यह मुहम्मद बिन कासिम के शासनकाल में 7वीं शताब्दी में आधिकारिक रूप से लागू किया गया और दिल्ली सल्तनत और मुगल साम्राज्य के दौरान जारी रहा। ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने मुस्लिम कानून के कुछ हिस्सों को एंग्लो-मुहम्मडन कानून के रूप में संहिताबद्ध किया।
मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरियत) आवेदन अधिनियम, 1937 आधुनिक मुस्लिम व्यक्तिगत कानून की नींव है। इसने विभिन्न प्रथाओं को इस्लामी कानून के अनुरूप बनाया और व्यक्तिगत मामलों में शरिया के लागू होने का प्रावधान किया। मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 मुस्लिम महिलाओं को विशेष परिस्थितियों में तलाक लेने की अनुमति देता है। मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 शाह बानो मामले के बाद लागू किया गया, जो तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकारों से संबंधित है।
भारत में मुस्लिम व्यक्तिगत कानून निरंतर विकसित हो रहा है, जिसमें सुधार की मांग और बहसें जारी रहती हैं। तीन तलाक पर प्रतिबंध, महिलाओं के अधिकार, और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे अक्सर सार्वजनिक और कानूनी चर्चा में आते रहते हैं। मुस्लिम व्यक्तिगत कानून का भारत में जटिल मिश्रण है जो धार्मिक सिद्धांतों, प्रथागत प्रथाओं, और विधायी कानूनों के साथ मिलकर मुसलमानों के व्यक्तिगत मामलों को इस्लामी सिद्धांतों और भारतीय कानूनी प्रणाली के ढांचे के भीतर नियंत्रित करता है।