मानव की गरिमा, अधिकारों का घोषणा पत्र 

मानव की गरिमा और अधिकार का महत्व सदैव एक दूसरे का पर्याय रहे हैं। जब-जब मानव की गरिमा पर कुठाराघात किया गया तब-तब अधिकारों के घोषणा पत्र द्वारा उसकी रक्षा हुई है।अधिकारों का महत्व सदैव चर्चा का विषय बना रहा है। जब हम अपने समक्ष या समाज में किसी व्यक्ति विशेष अथवा समुदाय के प्रति होने वाले शोषण को देखते हैं तब हमारे मस्तिष्क में एक ही बात आती है कि मानव को क्या-क्या अधिकार प्राप्त है? और यह कहां तक तर्क-संगत है। मानव के मूलभूत विकास के लिए आवश्यक शर्तों को ही अधिकार कहा जाता है, जो किसी भी राज्य द्वारा दिया जाता है। मानव के मानव होने के कारण जो अधिकार प्राप्त है उसे मानवाधिकार कहते हैं। मानव अपनी स्वतंत्रता राज्य को सौंप देता है, इसके प्रति उत्तर में राज्य ने उसे कुछ अधिकार दिए हुए हैं। मानव अधिकार के तहत न्याय, समानता, सहयोग, स्वतंत्रता और गरिमा को समाहित किया गया है। 

अधिकारों का घोषणा पत्र वह दस्तावेज है जिसमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता की घोषणा की जाती है। इसका उद्देश्य सरकार की शक्ति को सीमित करना और व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करना होता है। विभिन्न देशों में अधिकारों के घोषणा पत्र की सामग्री और संरचना अलग-अलग हो सकती है। 

भारत में प्रथम बार मौलिक अधिकार की बात 1895 इसवी में बाल गंगाधर तिलक द्वारा स्वराज विधेयक में की गई थी। इसके बाद 1925 ईसवी में एनी बेसेंट ने कॉमनवेल्थ बिल आफ इंडिया में भारतीयों के लिए मौलिक अधिकार की बात की। 1928 में मोतीलाल नेहरू ने नेहरू रिपोर्ट में मौलिक अधिकारों की मांग की जबकि 1931 के कांग्रेस के कराची अधिवेशन में सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा इसकी मांग की गई। 1931 में महात्मा गांधी द्वारा द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भी ब्रिटेन में मौलिक अधिकारों की मांग की गई। 1934 ईसवी में सरकार की संयुक्त समिति ने मौलिक अधिकारों की मांग की और अंततः 1935 ईसवी में भारत शासन अधिनियम के तहत अंग्रेजों ने इसे स्वीकारा।

भारत में अधिकारों का घोषणा पत्र संविधान के मौलिक अधिकार के रूप में शामिल है। भारतीय संविधान के भाग 3 में (अनु.12-35) मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है जो नागरिकों की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों की रक्षा करते हैं। यह अधिकार न्यायिक रूप से संरक्षित हैं और इनमें किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप असंवैधानिक माना जाता है। भारतीय संविधान में छः (मूल संविधान में सात) मौलिक अधिकार शामिल है। – समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार और संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों या मूल अधिकार को इस प्रकार सूचीबद्ध किया गया है कि सुरक्षा, संरक्षण और विशेष प्रावधान का सरकार भी उल्लंघन न कर सके। मौलिक अधिकार हमारे अन्य अधिकारों से भिन्न है। जहां साधारण कानूनी अधिकारों को सुरक्षा देने और लागू करने के लिए साधारण कानून का सहारा लिया जाता है, वही मौलिक अधिकारों की गारंटी और उनकी सुरक्षा स्वयं संविधान करता है। सामान्य अधिकारों को संसद कानून बनाकर पारित कर सकती है, लेकिन मौलिक अधिकारों में परिवर्तन के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ता है। इसके अलावा सरकार का कोई भी अंग मौलिक अधिकारों के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर सकता। 

मौलिक अधिकारों के हनन को रोकने की शक्ति और इसका उत्तरदायित्व न्यायपालिका के पास है। विधायिका या कार्यपालिका के किसी कार्य अथवा निर्णय से यदि मौलिक अधिकारों का हनन होता है, तो न्यायपालिका उन पर अनुचित प्रतिबंध लगा सकती है और उसे नीति को अवैध घोषित कर सकती है। भारतीय संविधान में यह मौलिक अधिकार नागरिकों की स्वतंत्रता, समानता और गरिमा की रक्षा के लिए सुनिश्चित किए गए हैं। यह अधिकार न्यायिक रूप से संरक्षित हैं अर्थात यदि किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है तो न्यायालय में जाकर इसकी पुनः स्थापना कर सकता है। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार का जिस प्रकार विस्तार है उस प्रकार पूरे विश्व में किसी भी संविधान का नहीं है।

अधिकारों का घोषणा पत्र नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज है। यह दस्तावेज नागरिकों को सरकार की अत्याचार से सुरक्षा प्रदान करता है और लोकतांत्रिक समाज में स्वतंत्रता और न्याय की नींव रखता है। इन अधिकारों का उद्देश्य नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करना और सरकार की शक्तियों को सीमित करना है। मानव विकास में यह एक महत्वपूर्ण कड़ी है।

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